रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह हाल ही में जब 28 जुलाई को संसद में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर जानकारी दे रहे थे, ठीक उसी दिन भारतीय सेना ने पहलगाम आतंकी हमले के मास्टरमाइंड सहित तीन आतंकवादियों को मार गिराया। जिस अभियान ने सीमाओं के पार भारत की आत्मरक्षा का संदेश दिया, वह एक ओर देशभक्ति और सामरिक साहस का प्रतीक बना तो दूसरी ओर उसे दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक बहस का केंद्र बनाने की कोशिश हो रही है। न सिर्फ पूरे देश ने बल्कि दुनिया ने भी जिस ऑपरेशन सिंदूर का लोहा माना वहीं विपक्ष सेना के शौर्य पर सवाल उठाता नजर आया। इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण क्या होगा कि भारत की संप्रभुता की हुंकार को लोकतंत्र के मंदिर में बैठ कर ‘तमाशा’ बताया जाए।
देश की परवाह थी तो इस बात का करते विरोध
अजीब विडंबना है कि -43 डिग्री सेल्सियस तापमान में डंटे रहकर जो जांबाज हमारे देश की शरहदों की रक्षा कर रहे हैं उनके शौर्य पर सवाल उठाए जा रहे हैं तो कांग्रेस सांसद प्रणीति शिंदे द्वारा ऑपरेशन सिंदूर को ‘तमाशा’ बताए जाने पर पूरे विपक्ष के मुंह में दही जम जाता है। क्या वाकई इन्हें देश की परवाह है? अगर ऐसा होता तो देश की सेना के शौर्य और शहादत का मजाक बनाने वाले इस बयान का पूरा विपक्ष विरोध करता न कि यह पूछा जाता कि हमारे कितने फाइटर जेट गिरे? जबकि न सिर्फ अधिकारिक तौर पर बल्कि सैन्य कार्यवाई के जरिए इन सारे सवालों का जवाब पहले ही दिया जा चुका है।
देश की सुरक्षा को कमजोर करने का प्रयास
जिस अभियान ने भारत की आत्मरक्षा का संदेश पूरी दुनिया को दिया, उस पर विपक्ष के कुछ नेताओं ने जिस गैरजिम्मेदाराना तरीके से सवाल उठाए, वह न केवल सेना का अपमान है बल्कि देश की सुरक्षा को भी कमजोर करने वाली मानसिकता को उजागर करता है। इतना ही नहीं संसद में गृह मंत्री अमित शाह ने खुद ‘ऑपरेशन महादेव’ में मारे गए आतंकवादियों के बारे में पुष्टि की। ये दरिंदे पहलगाम आतंकी हमले में शामिल थे। इस जानकारी के बाद भी विपक्ष अपने ‘ऐजेंडे’ पर ही अड़ा रहा।
ऑपरेशन सिंदूर: भारत का साहसी प्रतिकार
हालांकि विपक्ष का यह रवैया कोई नया नहीं है। 22 अप्रैल को हुए पहलगाम हमले में जब निर्दोष नागरिकों की जान गई, तब पूरा देश आक्रोशित था। विपक्ष उस समय भी सरकार पर निशाना साध रहा था ‘क्या करेगी सरकार?’ लेकिन जब जवाब दिया गया, तो वही लोग सेना की कार्रवाई पर सवाल उठाने लगे। ऑपरेशन सिंदूर के तहत 9 आतंकी ठिकानों को ध्वस्त किया गया। 100 से ज्यादा आतंकी ढेर कर दिए गए। यह कार्रवाई एक सैन्य कौशल का प्रमाण है। सटीक निशाना, शून्य नागरिक हानि और आतंक का सीधा सफाया लेकिन कुछ राजनैतिक दल फिर भी हमेशा की तरह देश की सेना के शौर्य पर सवाल उठाने से नहीं चूके।
पाकिस्तान को क्लीन चिट या राजनीतिक दुर्भावना?
गृह मंत्री अमित शाह की इस बात में दम है कि ‘आतंकियों के पास से पाकिस्तान के वोटर कार्ड, पाकिस्तानी हथियार, पाक निर्मित चॉकलेट मिलते हैं तब भी कुछ लोग पाकिस्तान पर सवाल नहीं करते बल्कि सरकार पर करते हैं। क्यों?’ पूर्व गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने इसका जवाब यह कहकर दिया कि ‘ये आतंकी स्थानीय हो सकते हैं’, न सिर्फ पाकिस्तान को परोक्ष राहत देने की कोशिश की बल्कि भारतीय एजेंसियों की जांच पर भी संदेह जताया। एक वरिष्ठ नेता का ऐसा बयान देश की सुरक्षा नीति के प्रति नासमझी और राजनीतिक हठधर्मिता को उजागर करता है।
क्या यह वही चिदंबरम नहीं हैं जिन्होंने 26/11 के बाद ऐसे ही तर्कों से पाकिस्तान की भूमिका को हल्का करने की कोशिश की थी? अखिलेश यादव को किससे सहानुभूति है? जब अखिलेश यादव संसद में गृह मंत्री द्वारा ऑपरेशन सिंदूर पर पूरी जानकारी देने के बाद भी संतुष्ट नहीं होते बल्कि लगातार रोका-टोकी करते हैं तो ये सवाल पाकिस्तान से नहीं, भारत से किए गए प्रतीत होते हैं। क्या अखिलेश भूल गए कि जिन अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वे भरोसा जता रहे हैं वे भारत के खिलाफ कार्रवाई में दोहरी नीति अपनाते हैं? क्या भारत को अपनी सेना की कार्रवाई को भी विदेशी अनुमोदन से जोड़कर देखना चाहिए? गृह मंत्री अमित शाह ने एकदम सटीक जवाब दिया, ‘क्या आपकी पाकिस्तान से बात होती है?’ यह प्रश्न नहीं, चेतावनी थी उन तमाम सियासी दलों को जो आतंकी मुद्दों पर भी भारत को कठघरे में खड़ा करने से नहीं चूकते।
सेना की कार्रवाई पर संदेह और आतंक पर मौन क्यों?
विपक्ष की राजनीति अब एक ऐसे मोड़ पर पहुंच गई है जहां आतंकियों के मरने पर उन्हें सबूत चाहिए होता है और देश की सुरक्षा में लगे जवानों की कार्रवाई को ‘प्रचार’, ‘नाटक’ या ‘राजनीतिक स्टंट’ कहकर खारिज किया जाता है। गृह मंत्री का यह कहना कि ‘जब आतंकवादी मारे जाते हैं तो आपके चेहरों पर उदासी क्यों होती है?’ पूरी तरह सही और प्रासंगिक है। यह आज के उस राजनीतिक वर्ग पर करारा प्रहार है, जो वोटबैंक की राजनीति में राष्ट्रवाद को ‘फासीवाद’ और देशभक्ति को ‘ड्रामा’ बताने लगे हैं।
राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी राजनीतिक एजेंडा?
भारत की विदेश नीति, रक्षा नीति और आतंकरोधी रणनीति को यदि केवल विपक्षी राजनीति की नजरों से देखा गया तो यह न सिर्फ सेना का मनोबल गिराएगा बल्कि शत्रु देशों को भी यह संकेत देगा कि भारत भीतर से विभाजित है। सरकार ने संसद में पूरी पारदर्शिता के साथ सबूत पेश किए, सेना की कार्रवाई को व्यावसायिक कौशल के रूप में दुनिया के सामने रखा लेकिन विपक्ष सिर्फ एक एजेंडे पर अड़ा रहा, ‘सरकार को घेरो, चाहे देश की छवि क्यों न दांव पर लगे।’
इस बार सवाल केवल सरकार का नहीं, देश की अस्मिता का है
इसमें कोई शक नहीं कि ऑपरेशन सिंदूर भारतीय सेना का पराक्रम है और मोदी सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रमाण है। यह सिर्फ एक सैन्य अभियान नहीं बल्कि एक वैचारिक युद्ध का भी हिस्सा है जहां एक ओर भारत की सीमाएं हैं और दूसरी ओर वह विचारधारा जो दुश्मन के पक्ष में खड़ी होती है, सिर्फ इसलिए कि सत्ता से दूर रहने की कुंठा उन्हें अंधा कर चुकी है। जो नेता पाकिस्तान की भूमिका पर चुप और अपनी ही सरकार, सेना पर मुखर हैं उनसे यह देश यह पूछना चाहता है कि आप किसका साथ दे रहे हैं? देश का या उस विचारधारा का जो हर बार भारत को भीतर से तोड़ने की कोशिश करती है? हमारी सेना के पराक्रम को बल्कि ऑपरेशन सिंदूर को ‘तमाशा’ बताए जाने वालों को कटघरे में किया जाना चाहिए क्योंकि इस बार सवाल केवल सरकार का नहीं, देश की अस्मिता का सवाल है।